दलित-ओबीसी राजनीतिः कहीं 'आप' बनकर न रह जाए 'बाप'

संक्षेप:

  • क्या मौके को भुनाने के लिए बन रही है नई पार्टी
  • कहीं आम आदमी पार्टी जैसा न हो बहुजन आजाद पार्टी का हाल
  • दलित राजनीति की मलाई खाने वालों का रहा है लंबा इतिहास

कानपुरः एक समय था जब देश के युवा सियासत में उतरने से कतराते थे और बोला जाता था कि राजनीति में अच्छे लोगों के लिए नहीं है. ये उस वक्त बोला जाता था, जब राजनीति में बाहुबल और धनबल का इस्तेमाल बढ़ गया था. इसकी आलोचना करते हुए कहा जाने लगा था कि इस देश में क्रांति सबको चाहिए लेकिन हर कोई चाहता है कि क्रांति की मशाल पड़ोस के घर से जले. लेकिन आम आदमी पार्टी के उभार ने इस सवाल का जवाब दिया. केजरीवाल की आम आदमी केंद्रित सियासत ने राजनीति में बदलाव की नई उम्मीद जगाई. हालांकि बाद में आम आदमी पार्टी ने भी निराश ही किया. वैकल्पिक राजनीति करने का दावा करने वाली पार्टी साफ सुथरी राजनीति का विकल्प देने में नाकाम साबित हुई. ऐसे में जब आईआईटी से निकले 50 लड़कों के एक समूह ने एक नई पार्टी बनाकर राजनीति में उतरने का फैसला लिया है. तो एक बार फिर ये सवाल जेहन में आता है कि कहीं बहुजन आजाद पार्टी का भी आम आदमी पार्टी की तरह न बन जाए.

एक साथ 50 लड़के, जो आईआईटी जैसे देश के सर्वोच्च संस्थान से पढ़े-लिखे हों. लाखों के पैकेज पर काम कर रहे हों. उनका अचानक नौकरी छोड़कर राजनीति में उतरने का फैसला लेना और आनन-फानन में एक अलग राजनीतिक पार्टी बना लेना. ये खबर हर किसी को आकर्षित करने वाली है. मीडिया की भाषा में कहें तो `आई कैचिंग` स्टोरी है.

दलित राजनीति को लेकर पहले से ही कई तरह के आंदोलन चल रहे हैं. आरक्षण के सवाल पर बहस गरम है. ऐसे माहौल में दलित और ओबीसी केंद्रित राजनीति करने वाली नई पार्टी का गठन कैलकुलेटेड रिस्क वाला फैसला लगता है. ‘लोहा गरम है, मार दो हथौड़ा’ टाइप. सवाल कई हैं, जिनमें से एक ये भी है कि क्या ये 50 लड़के राजनीति को अपना दूसरा सॉलिड वाला करियर ऑप्शन मानकर तो नहीं चल रहे हैं? आमतौर पर इस तरह की राजनीति में प्रवेश करने वाले लोग समाज सेवा के संकरे रास्ते से होते हुए चुपके से राजनीतिक गलियों में दाखिल होते हैं. इस तरह की राजनीति का रास्ता एनजीओ से होकर गुजरता है. जैसा अरविंद केजरीवाल ने किया. इंडिया अंगेस्ट करप्शन से भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाकर आंदोलन-अनशन के बाद अगला पड़ाव बनी थी राजनीति. लेकिन यहां खुला खेल फर्रुखाबादी है. मल्टीनेशनल कंपनियों के जॉब छोड़कर सीधे राजनीति का मैदान. वो भी दलित और ओबीसी की राजनीति. जिस राजनीति की मलाई खाने वालों का लंबा इतिहास रहा है.

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आईआईटी दिल्ली से पढ़े नवीन कुमार इस नई पार्टी के प्रेसिडेंट इन वेटिंग हैं. द एशियन ऐज से बात करते हुए वो कहते हैं कि ‘आजादी के बाद तकरीबन हर पार्टी, चाहे वो बीजेपी-कांग्रेस हो या कोई और सबने दलितों और पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में लाकर उन्हें मजबूत बनाने का वादा किया. लेकिन सभी इस मकसद में बुरी तरह से फेल रहे. क्योंकि ये करना उनका मुख्य मुद्दा था ही नहीं. इसलिए हमने मिलकर अब ऐसे लोगों के लिए काम करने का फैसला किया है.’

हालांकि इस बड़े ऐलान के बाद भी बहुजन आजाद पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में नहीं उतरने जा रही है. इनकी प्लानिंग 2020 के बिहार चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने की है. नवीन कुमार कहते हैं कि उनका मुख्य मुद्दा शिक्षा व्यवस्था में सुधार का होगा. बहुजन आजाद पार्टी के ज्यादातर सदस्य बिहार के ही हैं. कुछ नौकरी करने वाले हैं और कुछ देश की सबसे बड़ी प्रतियोगिता परीक्षा यूपीएससी की तैयारी को तिलांजलि देकर राजनीति के अखाड़े में उतरने जा रहे हैं. इसलिए भविष्य को लेकर उम्मीदें सबकी अधिक हैं.

दिलीप मंडल कहते हैं `उनकी राजनीति को लेकर संदेह नहीं तो एक सवाल जरूर पैदा होता है. आखिर बिहार चुनाव से ही राजनीति के मैदान में उतरने की क्या वजह है. बिहार में पहले से ही एक मजबूत विपक्ष है. जहां खाली मैदान है, वहां से वो शुरुआत नहीं कर रहे हैं.`

बहुजन आजाद पार्टी एक नए पॉलिटकल स्टार्टअप का आयडिया भर है?

इस तरह के कई सवाल हैं. देश में रोज ही नए दलित आंदोलन पैदा हो रहे हैं. सवाल है कि ऐसे आंदोलनों का उभार व्यवस्था में दोष की वजह से है या सत्ता पर काबिज एक खास विचारधार के प्रतिरोध के तौर पर. 2 अप्रैल को देशभर में दलितों का विरोध प्रदर्शन हुआ. देश के हर कोने से हंगामे की खबर आई. कुछ मौतें भी हुईं. लेकिन इन सबके बावजूद दलितों के लिए लोगों में एक हमदर्दी का भाव दिखा. लोगों में ऐसा भाव एक नई पार्टी के फलने फूलने के लिए मुफीद साबित हो सकता है. आईआईटीएन लड़कों के लिए ये एक नए पॉलिटिकल स्टार्टअप वाला बेहतरीन आयडिया सरीखा हो सकता है.

दलित चिंतक और समाजशास्त्री बद्री नारायण का मानना है कि इस तरह की कोशिश का स्वागत होना चाहिए. हालांकि वो ये भी कहते हैं, ‘लॉन्ग टर्म पॉलिटिक्स के लिए बड़ी शिद्दत चाहिए होती है. इस वक्त जिग्नेश मेवाणी जैसे नए दलित नेता भी उभरकर सामने आ रहे हैं. ये आम आदमी पार्टी जैसी राजनीति का असर है. ऐसी राजनीति का अलग-अलग रिफ्लेक्शन सामने आ रहा है. लेकिन ये कितना कामयाब होगा ये देखने वाली बात होगी.’

इस बात में कोई शक नहीं है कि आम आदमी पार्टी की शुरुआती राजनीतिक कामयाबी ने लोगों में राजनीति को एक करियर के बतौर ऑप्शन चुनने की संभावना जगाई है. अगर ये उनसे प्रेरित हैं शायद इन्हें शुरुआती सफलता भी मिल जाए. लेकिन आम आदमी पार्टी का उसके बाद हुआ हश्र भी देखना चाहिए.

समाजशास्त्री बद्री नारायण इसे ज्यादा व्यापक तरीके से देखते हुए कहते हैं कि `दलितों में एक बड़ा वर्ग शिक्षित हुआ है. पैसे भी आए हैं. इसी वजह से ये बदलाव देखने को मिला है. ये दलितों में कैपिसिटी टू डू पॉलिटिक्स की वजह से आया है. दलितों में ये शक्ति आई है कि वो राजनीति करें. हर जाति की अपनी राजनीतिक उम्मीदें हैं. इसलिए इस तरह का उभार देखने को मिल रहा है.`

हालांकि वो ये भी जोड़ते हैं कि ये एक टेम्पररी एफर्ट्स हैं. यानी ये एक अस्थायी कोशिश है. 2014 के बाद बदले हुए राजनीतिक माहौल में कई नए तरह के प्रयोग हो रहे हैं. ये भी कुछ प्रयोग सरीखा ही है.

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